
वह बड़े प्रेम से आया था कि पिता की गोद में बैठ जाएगा। लेकिन पिता ने आज कीमती वस्त्र पहने हैं, वे किसी शादी-विवाह में जा रहे हैं। अब यह उनकी सब क्रीज बिगाड़ दे रहा है। इसे कुछ पता नहीं कि क्रीज भी होती है, कि शादी-विवाह में क्रीज बिगाड़कर नहीं जाना होता। इसे कुछ पता नहीं है। बाप ने झिटकार दिया। कहा कि दूर हट, खेल; अभी पास मत आ। इसकी कुछ समझ में नहीं आता कि क्या मामला है! कब पास जाना, कब नहीं जाना? कब प्रेम का निवेदन स्वीकार होगा, कब अस्वीकार होगा, कुछ पक्का नहीं है। बच्चा नियम नहीं बना पाता। दुविधा खड़ी हो जाती है। बच्चा भयभीत हो जाता है। और जब अपनों से इतना डर है तो परायों का तो कहना ही क्या! जब अपनों पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता कि हर घड़ी प्रेम मिलेगा, तो दूसरों का तो क्या भरोसा!फिर बच्चा बड़ा होता है; स्कूल जाता है। वहाँ कोई अपना नहीं है। शिक्षक अपना नहीं, संगी-साथी अपने नहीं, वह सिकुड़ा हुआ है। धीरे-धीरे बड़ी दुनिया में प्रवेश करता है, वह सिकुड़ जाता है। अब वह डरता है। अब उसको भय है कि वह किसी के पास प्रेम का निवेदन करे और वह कह दे, हटो भी! अपनी शक्ल आईने में देखो!तो इससे बेहतर है, अपमान से तो बेहतर है इस उपाय को भी कभी न करना। चुप रहो। कभी कोई प्रेम करेगा तो शायद खुद आ जाएगा।लेकिन दूसरे की भी यही मुसीबत है। वह भी डरा हुआ है। लोग प्रेम करने को पैदा हुए हैं, और प्रेम से भयभीत हैं। लोग बिना प्रेम के जीवन की गहनता को न जान पाएँगे, और प्रेम से भयभीत हैं। लोग बढ़ना चाहते हैं, प्रेम करना चाहते हैं, लेकिन डर है अस्वीकार का। चोट लगेगी। उससे बेहतर अकेले जी लेना है। कम से कम किसी को चोट देने का मौका तो नहीं दिया; अपमान तो नहीं हुआ।इसलिए तुमसे कहता हूँ कि चट्टान से, वृक्ष से- वे तुम्हें इनकार न करेंगे। और वे उतने ही प्रेम के लिए आतुर हैं जितना कोई और। और उनसे तुम्हें कभी चोट न पहुँचेगी।
सौजन्य:Osho Sahitya
No comments:
Post a Comment