
वह यात्री चकित खड़ा होगया और उसने कहा की तीनो लोग पत्थर तोड़ रहे है | लेकिन पहला आदमी क्रोध से कहता है की में पत्थर तोड़ रहा हूँ , आप अंधे है क्या ? दिखाई नही पड़ता ? दूसरा आदमी भी पत्थर तोड़ रहा है लेकिन वह उदासी से कहता है कि में रोटी कमा रहा हूँ |तीसरा आदमी भी पत्थर तोड़ रहा था , लेकिन वह कहता है , आनंद से गीत गाते हुए कि में भगवन का मन्दिर बना रहा हूँ |
ये जो तीन मजदूर थे उस मन्दिर को बनाते , करीब -करीब हम भी इन्ही तीन तरह के लोग है जो जीवन के मन्दिर को निर्मित करते है | हम सभी जीवन के मन्दिर को निर्मित करते है , लेकिन कोई जीवन के मन्दिर को निर्मित करते समय क्रोध से भरा रहता है , क्यो कि वह पत्थर तोड़ रहा है | कोई उदासी से भरा रहता है , क्योकि वह केवल रोटी कमा रहा है | लेकिन कोई आनंद से भर जाता है , क्यो कि वह परमात्मा का मन्दिर बना रहा है | जीवन को हम जैसा देखते है जीवन को देखने कि जो हमारी चित्त दशा होती है , वह जीवन कि हमारी अनुभूति बन जाती है | जीवन को देखने कीजो हमारी भाव द्रष्टि होती है वही हमारे जीवन का अनुभव , और जीवन का साक्छात्कार भी बन जाती है | पत्थर तोड़ते हुए से भगवान का मन्दिर बनाने की जिसकी द्रष्टि हैं , वह आनंद से भर जाएगा | और हो सकता है , पत्थर तोड़ते- तोड़ते उसे भगवान का मिलन भी होजाए | क्यो कि उतनी आनंद कि मन: स्थिति पत्थर में भी भगवान को खोज लेती है | आनंद के अतिरिक्त भगवान के पास पहुचने का और कोई द्वार नही है| लेकिन जो क्रोध और पीड़ा में काम कर रहा हो , उसे भगवान कि मूर्ति में सिवाय पत्थर के और कुछ भी नही मिल सकता | क्रोध कि द्रष्टि पत्थर के आलवा कुछ भी उपलब्ध नही कर पाती| जो उदास है, जो दुखी है , वह अपनी उदासी और दुःख को ही पूरा फैला हुआ देख ले तो आश्चर्य नही है | हम वही अनुभव करते है जो हम होते है | हम वही देख लेते है जो हमारी देखने कि द्रष्टि होती है , जो हमरा अंतर्भाव होता है |